दोस्तों नमस्कार कैसे हो मै आज आप सभी को महानदी का उद्गम स्थल ले जा रहा हु नाम तो सुना ही होगा सिहावा जी हां आपने बिलकुल सही सूना सिहावा जंहा से महानदी का उद्गम स्थल माना जाता है महानदी के उद्गम और श्रृंगी ऋषि से सम्बंधित अनेक किवदंती आपको इंटरनेट के माध्यमो से प्राप्त हो जाएँगे जिसमे श्रृंगी ऋषि के जन्म और महानदी के उद्गम के बारे में जानने को मिलेगा मै आपको किवदंती बताने के पूर्व आश्वस्त कर दूँ की मै न ही अविज्ञान को मानता हूँ ,और ना ही अवैज्ञानिक बातो को और न ही मानने को कहता हूँ कृपा कर मानना न मानना आपके ऊपर है
श्रृंगी ऋषि के जन्म सम्बंधित किवदंती
तो श्रृंगी ऋषि के जन्मसम्बंधित एक किवदंती इस किवदंती के अनुसार ऋषि विभंडक के तपस्या से इंद्र की आसन डगमगाने लगा तो उसने अपने अप्सरा को ऋषि के तपस्या को भंग करने के लिए भेज दिया उर्वशी ने ऋषि विभंडक के तपस्या भंग तो कर दिया पर दोनों ऋषि और उर्वशी प्रेमआशक्त हो गए और ख़ुशी से जीवन बिताने लगे कुछ दिनों बाद श्रृंगी ऋषि का जन्म हुआ जन्म के पश्चात उर्वशी उन्हें छोड़कर पुनः इंद्र के पास चली गई श्रृंगी ऋषि का पालन पोषण उनके पिता के द्वारा ही हुआ बालक का एक सृंग निकला था इसलिए इनका नाम श्रृंगी ऋषि हुआ यह मिथक कथा कहा तक सही है कहा नही जा सकता
एक और जनश्रुति के अनुसार ऋषि नदी में स्नान कर रहा था जो इंद्र के अप्सरा उर्वसी को देख कर शक्ति स्खलित जल में ही कर दिया जिसे हिरण के पानी पिने पर हिरन गर्भवती हो गई और उनके पेट से जन्म लिए और उनके एक सृंग था इसलिए श्रृंगी ऋषि कहलाय यह कहानी बिलकुल भी तर्क संगत नही लग रहा साथ ही आ वैज्ञानिक लग रहा है अब आपकी मर्जी कौन सा सही मनो तो और आगे आते है एक बार अंग देश में कांफी सुखा पड़ा फिर रोमपाद ने ऋषि को मानाने का कई प्रयत्न किये और उन्हें अपने देश ले आये और अपने मुह बोली बेटी शांता से उनकी विवाह करवा दिए और ऋषि सृंगी ने ही राजा दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ किया ऐसा कहा जाता है
महानदी उद्गम कहानी
एक बार कुम्भ मेला में सम्मिलित होने सभी ऋषि जा रहे थे उन्होंने सोचा की ऋषि सृंगी को भी साथ लेकर चलते है पर आश्रम में आने पर ऋषि तप में लीन थे तो बांकी ऋषि उनका तप भंग करना उचित न समझे और कुम्भ स्नान के लिए चल दिए वापसी में भी ऋषि अपने अपने कमंडल से गंगा जल ऋषि श्रृंगी के कमंडल में डाल दिए और वंहा से चले गये पर उनका ध्यान लगा ही रहा अज्ञात दिनों बाद गंगा मैया प्रकट हुआ पर ऋषि का ध्यान भंग न होने पर वह क्रोधित होकर पहाड़ को तोड़ते हुए जाने लगी तब ऋषि के शिष्य द्वारा आग जला कर ऋषि की तपस्या भंग की गई तब तक 15-16 किलो मीटर आगे निकल चुकी थी ऋषि के निवेदन पर वह अपने दिशा परिवतर्न कर सभी दिशाओ में अपना जल सिंचित करता है ऐसा माना जाता है
महानदी पर वैज्ञानिक एव विज्ञान और भूगोल इतिहास सम्बंधित बाते
महानदी का प्रवाह दक्षिण से उत्तर की तरफ है। सिहावा से निकलकर राजिम में यह जब पैरी और सोढुल नदियों के जल को ग्रहण करती है तब तक विशाल रूप धारण कर चुकी होती है। ऐतिहासिक नगरी आरंग और उसके बाद सिरपुर में वह विकसित होकर शिवरीनारायण में अपने नाम के अनुरुप महानदी बन जाती है। महानदी की धारा इस धार्मिक स्थल से मुड़ जाती है और दक्षिण से उत्तर के बजाय यह पूर्व दिशा में बहने लगती है। संबलपुर में जिले में प्रवेश लेकर महानदी छ्त्तीसगढ़ से बिदा ले लेती है। अपनी पूरी यात्रा का आधे से अधिक भाग वह छत्तीसगढ़ में बिताती है। सिहावा से निकलकर बंगाल की खाड़ी में गिरने तक महानदी लगभग ८५५ कि॰मी॰ की दूरी तय करती है। छत्तीसगढ़ में महानदी के तट पर धमतरी, कांकेर, चारामा, राजिम, चम्पारण, आरंग, सिरपुर, शिवरी नारायण और उड़ीसा में सम्बलपुर, बलांगीर, कटक आदि स्थान हैं तथा पैरी, सोंढुर, शिवनाथ, हसदेव, अरपा, जोंक, तेल आदि महानदी की प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। महानदी का डेल्टा कटक नगर से लगभग सात मील पहले से शुरू होता है। यहाँ से यह कई धाराओं में विभक्त हो जाती है तथा बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। इस पर बने प्रमुख बाँध हैं- रुद्री, गंगरेल तथा हीराकुंड। यह नदी पूर्वी मध्यप्रदेश और उड़ीसा की सीमाओं को भी निर्धारित करती है।
इतिहास
अत्यंत प्राचीन होने के कारण महानदी का इतिहास पुराण श्रेणी का है। ऐतिहासक ग्रंथों के अनुसार महानदी और उसकी सहायक नदियाँ प्राचीन शुक्लमत पर्वत से निकली हैं। इसका प्राचीन नाम मंदवाहिनी भी था ऐसा उल्लेख न केवल इतिहासकार ही नहीं बल्कि भूगोलविद भी करते हैं। महानदी के सम्बंध में भीष्म पर्व में वर्णन है जिसमें कहा गया है कि भारतीय प्रजा चित्रोत्पला का जल पीती थी। अर्थात महाभारत काल में महानदी के तट पर आर्यो का निवास था। रामायण काल में भी पूर्व इक्ष्वाकु वंश के नरेशों ने महानदी के तट पर अपना राज्य स्थापित किया था। मुचकुंद, दंडक, कल्माषपाद, भानुमंत आदि का शासन प्राचीन दक्षिण कोसल में था। महानदी की घाटी की अपनी विशिष्ट सभ्यता है। इस ऐतिहासिक नदी के तटों से शुरु हुई यह सभ्यता धीरे धीरे नगरों तक पहुँची।
भूगोल
महानदी का उद्गम धमतरी जिले में स्थित सिहावा नामक पर्वत श्रेणी से हुआ है। महानदी का प्रवाह दक्षिण से उत्तर की तरफ है। यह प्रवाह प्रणाली के अनुरुप स्थलखंड के ढाल के स्वभाव के अनुसार बहती है इसलिए एक स्वयंभू जलधारा है। प्रदेश की सीमान्त उच्च भूमि से निकलने वाली महानदी की अन्य सहायक नदियाँ केन्द्रीय मैदान की ओर प्रवाहित होती हुई महानदी से समकोण पर मिलकर जल संचय करती हैं। नदियों की जलक्षमता के हिसाब से यह गोदावरी नदी के बाद दूसरे क्रम पर है। छत्तीसगढ़ में 286 कि॰मी॰ की यात्रा के इस पड़ाव में महानदी सीमांत सीढ़ियों से उतरते समय छोटी-छोटी नदियाँ प्रपात भी बनाती हैं। महानदी की अनेक सहायक नदियाँ हैं। शिवनाथ नदी छत्तीसगढ़ की दूसरी सबसे बड़ी नही है जो महानदी में शिवरीनारायण में मिलती है। पैरी नदी एक और सहायक नदी है जो वृन्दानकगढ़ जमींदारी से निकलती ही राजिम क्षेत्र में महानदी से मिलती है। इसके अतिरिक्त खारून तथा अरपा नदियाँ भी शिवनाथ नदी में समाहित होकर महानदी की विशाल जलराशि का हिस्सा बनती हैं।
धार्मिक महत्व
राजिम में प्रयाग की तरह महानदी का सम्मान है। हजारों लोग यहाँ स्नान करने पहुँचते हैं। शिवरीनारायण में भी भगवान जगन्नाथ की कथा है। गंगा के समान पवित्र होने के कारण महानदी के तट पर अनेक धार्मिक, सांस्कृतिक और ललित कला के केंद्र स्थित हैं। सिरपुर, राजिम, मल्हार, खरौद, शिवरीनारायण, चंद्रपुर और संबलपुर प्रमुख नगर हैं। सिरपुर में गंधेश्वर, रूद्री में रूद्रेश्वर, राजिम में राजीव लोचन और कुलेश्वर, मल्हार पातालेश्वर, खरौद में लक्ष्मणेश्वर, शिवरीनारायण में भगवान नारायण, चंद्रचूड़ महादेव, महेश्वर महादेव, अन्नपूर्णा देवी, लक्ष्मीनारायण, श्रीरामलक्ष्मणजानकी और जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा का भव्य मंदिर है। गिरौदपुरी में गुरू घासीदास का पीठ और तुरतुरिया में लव कुश की जन्म स्थली बाल्मिकी आश्रम होने के प्रमाण मिलते हैं। इसी प्रकार चंद्रपुर में मां चंद्रसेनी और संबलपुर में समलेश्वरी देवी का वर्चस्व है। इसी कारण छत्तीसगढ़ में इन्हें काशी और प्रयाग के समान पवित्र और मोक्षदायी माना गया है। शिवरीनारायण में भगवान नारायण के चरण को स्पर्श करती हुई रोहिणी कुंड है जिसके दर्शन और जल का आचमन करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। सुप्रसिध्द प्राचीन साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा इसका वर्णन करते हुए कहते हैं कि इस नदी में स्नान करने से सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है।[घ]
व्यावसायिक महत्व
एक समय में महानदी आवागमन का साधन बन जाती थी। नाव के द्वारा लोग महानदी के माध्यम से यात्रा करते थे। व्यापारिक दृष्टि से भी यह यात्रा उपयोगी थी। इतिहासकार उल्लेख करते हैं कि पहले इस नदी के जलमार्ग से कलकत्ता तक वस्तुओं का आयात-निर्यात हुआ करता था। छत्तीसगढ़ के उत्पन्न होने वाली अनेक वस्तुओं को महानदी और उसकी सहायक नदियों के मार्ग के समुद्र-तट के बाजारों तक भेजा जाता था। महानदी पर जुलाई से फरवरी के बीच नावें चलती थी। आज भी अनेक क्षेत्रों में लोग महानदी में नाव से इस पार से उस पार या छोटी-मोटी यात्रा करते हैं। महानदी के तटवर्ती क्षेत्रों और आसपास हीरा मिलने के तथ्य भी मिले हैं। गिब्सन नामक एक अंग्रेज़ विद्वान ने अपनी रिपोर्ट में इसका उल्लेख भी किया है। उसके अनुसार संबलपुर के निकट हीराकूद अर्थात् हीराकुंड नामक स्थान एक छोटा-सा द्वीप है। यहाँ हीरा मिला करता था। इन हीरों की रोम में बड़ी खपत थी। महानदी में रोम के सिक्के के पाये जाने को वे इस तथ्य से जोड़ते हैं। व्हेनसांग ने भी अपनी यात्रा में लिखा था कि मध्यदेश से हीरा लेकर लोग कलिंग में बेचा करते थे, यह मध्यदेश संबलपुर ही था। अली युरोपियन ट्रेव्हलर्स इन नागपुर टेरीटरी नामक ब्रिटिश रिकार्ड जो सन १७६६ का है में उल्लेख है कि एक अंग्रेज़ को इस बात के लिए भेजा गया था कि वह संबलपुर जाकर वहाँ हीरे के व्यापार की संभावनाओं का पता लगाये। हीराकुंड बांध भी इसी महानदी को बांध कर बनाया गया है।
ऊपरी महानदी बेसिन
मध्य महानदी बेसिन
इसके अंतर्गत दुर्ग, मध्य रायपुर और बिलासपुर ज़िले का कुछ भाग सम्मिलित है। यह सम्पूर्ण क्षेत्र महानदी की प्रमुख सहायक शिवनाथ नदी का जलग्रहण क्षेत्र है, जिसमें उत्तरी-पश्चिमी एवं दक्षिणी सीमान्त उच्च भूमि से निकलने वाली सभी सहायक नदियाँ एवं नाले आकर मिलते हैं। शिवनाथ नदी रायपुर ज़िले में शिवरीनारायण से ऊपर किरौन्जी नामक स्थान में पश्चिम से आकर महानदी में मिलती है। जमुनिया तथा खोरसी नदी दक्षिण से आकर मिलती हैं।
निचला महानदी बेसिन
इसके अंतर्गत बिलासपुर, रायपुर तथा रायगढ़ ज़िले आते हैं। शिवनाथ महानदी के संगम स्थल से महानदी एक तीव्र मोड़ लेकर बिलासपुर और रायपुर ज़िलों के मध्य तथा रायगढ़ और सारंगगढ़ तहसील के मध्य एक प्राकृतिक सीमा बनाती है, जो पूर्वी ढलान की ओर प्रवाहित मध्य प्रदेश से बाहर निकल जाती है। इस क्षेत्र में इसके उत्तर की ओर हसदो, माँड एवं ईब नदियाँ तथा दक्षिण की ओर से जोंक एवं सुरंगी आकर मिलती हैं। रायपुर ज़िले में नदी की लम्बाई 192 किमी. तथा प्रवाह क्षेत्र 8,550 वर्ग किमी. है।]
सिहावा पर्वत के बारे में
सिहावा छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर के समीप धमतरी ज़िले में स्थित एक पर्वत श्रेणी है। इस पर्वतश्रेणी में ही महानदी का उद्गम होता है।
- किंवदंती है कि इस स्थान पर पूर्वकाल में श्रृंगी आदि सप्तऋषियों की तपोभूमि थी, जिनके नाम से प्रसिद्ध कई गुफाएँ पहाड़ियों के उच्चशिखरों पर अवस्थित हैं।
- सिहावा के खंडहरों से छः मंदिरों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
- सिहावा के पाँच मन्दिरों का निर्माण चन्द्रवंशी राजा कर्ण ने 1114 शक संवत 1192 ई. के लगभग करवाया था।
- यह बात सिहावा के एक अभिलेख से स्पष्ट होती है।
- इस अभिलेख से सूचित होता है कि सिहावा का नाम देवह्रद था और इसे एक तीर्थ के रूप में मान्यता प्राप्त थी।
- धमतरी जिला में स्थित है तथा महानदी का उद्गमस्थल है सिहावा पर्वत में महर्षि श्रृंगी ऋषि आश्रम की दक्षिण दिशा में ग्राम पंचायत रतावा के पास स्थित पर्वत में महर्षि अंगिरा ऋषि का आश्रम है। ग्रामीणों ने बताया कि पर्यटन विभाग की अनदेखी के चलते आश्रम का विकास नहीं हो सका है। ग्रामवासियों व समिति के सदस्यों के सहयोग से रामजानकी व मां दुर्गा के मंदिर का निर्माण कराया गया। सिहावा की सप्त ऋषियों की इस तपोभूमि के इस पवित्र आश्रम के जीर्णोद्धार व देखभाल की आवश्यकता है। ये आश्रम पुरातन महत्व का है। लोंगों ने पुरातत्व विभाग से इन आश्रमों को संरक्षित करने की मांग है।पुरातन मान्यताओं के अनुसार सप्ता ऋषियों में सबसे वरिष्ठ अंगिरा ऋषि को माना जाता है। प्राचीन काल में यही उनकी तपोभूमि थी। इस पर्वत को श्रीखंड पर्वत के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक महत्व की इस आश्रम को पर्यटन स्थल के रूप विकासत करने की दिशा में ठोस प्रयास की आवश्यकता है।पौराणिक कथाओं में अंगिरा ऋषि की तप की महिमा का विवरण मिलता है। आश्रम के पुजारी मुकेश महाराज के अनुसार प्राचीनकाल में एक समय अंगिरा ऋषि अपने आश्रम में कठोर तपस्या में लीन थे। वे अग्नि से भी अधिक तेजस्वी बनना चाहते थे। अपनी कठिन तपस्या से महामुनि अंगिरा संपूर्ण संसार को प्रकाशित करने लगे। आज पर्वत शिखर पर स्थित एक छोटी सी गुफा मे अंगिरा ऋषि की मूर्ति विराजमान है। कहते हैं कि पुरातन मूर्ति जर्जर होकर खंडित हो चुकी थी। तब आसपास के 12 ग्राम के भक्तों ने मिलकर एक समिति बनाई। समिति को श्री अंगिरा ऋषि बारह पाली समिति नाम दिया गया। समिति के सदस्यों ने पर्वत शिखर पर अंगिरा ऋषि की मूर्ति की स्थापना की। साथ ही भगवान शिव, गणेश, हनुमान की मूर्तियों को भी स्थापित किया। पर्वत के नीचे एक यज्ञा शाला देखा जा सकता है। कहते हैं वहां अंगिरा ऋषि का चिमटा व त्रिशूल आज भी पूजा के लिए रखा गया है। नवरात्र में भक्तों द्वारा यहां मनोकामना ज्योति प्रज्वलित की जाती है। अघन पूर्णिमा पर्व में श्रीराम नवमी का आयोजन होता है।इस पर्वत में सात से भी अधिक गुफाएं हैं। इन गुफाओं में से एक में निरंतर एक दीप प्रज्वलित हो रहा है। मान्यता है वहां आज भी अंगिरा ऋषि का निवास है। पर्वत के शिखर पर एक शीला में पदचिन्ह बना हुआ देखा जा सकता है। लोगों की आस्था है कि यह पदचिन्ह भगवान श्रीराम के है। वनवास काल में उनका आगमन अंगिरा ऋषि के आश्रम में हुआ था। ऐसा मान्यता है
सिहावा पहाड़ में श्रृंगी ऋषि आश्रम को सीमेंट से बनाया गया है और पास में ही ऋषि का एक मूर्ति है जिसे पत्थर से बनवाया गया है सफ़ेद संगमरमर का और मंदिर के सामने भाग में बहु संख्य खंडित मूर्ति दिखाई पड़ते है जो कांकेर के गडिया पहाड़ में स्थित मूर्तियों से कांफी मेल खाते है साथ ही समकालीन भी हो सकते है मुझे ऐसी आशंका है इसपर इतिहासकार और पुरातात्वेता और भू गर्भज्ञानियों के द्वारा वास्तविक जानकारी मिल सकता है आज के लिए बस इतना फिर नए जगहों के साथ में फिर मिलेंगे
0 टिप्पणियाँ